Thursday 13 July 2017

 न जाने मुझे इस जीवन से क्या चाहिए
 कभी घूमना कभी ठहरना चाहिए
 कभी मन चाहता है कि उड़ जाऊं सारे बंधन तोड़ कर
 कभी दिल को बंधनों में जकड़ना चाहिए
 कभी सोचती हूं ना हो मेरे आस पास कोई
 कभी किसी भीड़ में खो जाना चाहिए
 कभी जूझना चाहूं हर सितम हर परेशानी से
 कभी बस कही चैन की एक साँस चाहिए
 कभी दिल करता है कि थाम कर हाथ उसका, चलूँ जिंदगी भर
 कभी उस से छुप जाने का ठिकाना चाहिए
 न कर यूँ परेशां मुझे ए जिंदगी
 कि मुझे तुझसे गुजरने का बहाना चाहिए

Friday 9 June 2017

                                                                          गुलाब 
 वो मेरे दिल को बहुत भाता था। उसकी एक मोहक मुस्कान मेरा दिन बना देती थी। हर सुबह उसका अपने घर से साइकल लेकर निकलना और मेरा उस रस्ते से गुजरना , हम दोनों ही जैसे उस एक क्षण के लिए अपना बाकि का दिन गुजारते  थे। आज से कोई 15 साल  पहले की बात है ,मैं 11वीं  कक्षा में थी और वो , पता नहीं किस कक्षा में था लेकिन किस स्कूल में पढता था ये पता था। उस छोटे से शहर में मुश्किल से 3 -4 स्कूल ही तो थे। उनमे से दो बड़े सरकारी स्कूल थे लड़को और लड़कियों का अलग -अलग और 1 -2 छोटे ,कक्षा 5 -8 तक के निजी स्कूल। तो ये कयास लगाना मुश्किल  नहीं होगा के वो सरकारी स्कूल का ही  विद्यार्थी था और हम भी सो हमारा स्कूल जाने का समय भी एक ही हुआ करता था इसलिए हमारी मुलाकात लगभग रोज ही हो जाया करती थी। लेकिन उन दिनों लड़कों और लड़कियों की दोस्ती का इतना प्रचलन नहीं था सो हम एक दूसरे को देख कर ही प्रसन्न हो जाया करते थे। 10 वीं कक्षा में स्कूल जब 7 ;30 के हुआ करते तब सुबह उठने में मेरे बड़े नाटक हुआ करते थे हांलाकि हमारे माता -पिता आजकल के 'मॉम डैड' की तरह 'कूल' नहीं हुआ करते थे ,जो की उठ जा बेटे ,देर हो जाएगी ,प्यारा बच्चा कहकर हमें उठाते या तैयार करते। उन दिनों यदि एक दो बार में बात नहीं मानी तो आँखे दिखाने ,डाँट मारने या फिर सीधे थप्पड़ मारने का 'रिवाज' हुआ करता था। और मैंने भी बहुत डाँट खायी थी तब। लेकिन 11वीं कक्षा में जबसे उससे मुलाक़ात हुई तबसे सुबह -सुबह स्कूल जाने में कभी कोई नाटक नहीं हुआ। मेरा अंदाजा है की मम्मी को भी ये अजीब जरूर लगा होगा लेकिन शायद 'बड़ी हो गई है' सोचकर नजरअंदाज कर दिया होगा। दिसंबर -जनवरी की ठण्ड घना कोहरा ,सर्दी से किटकिटाते दांत कुछ भी 'मेरे स्कूल जाने' की समर्पित भावना को हिला नहीं पाते थे। सर्दियों में माँ के हाथ के स्वेटर ,दस्ताने ,स्कार्फ पहनकर उस घने कोहरे को चीरते हुए जाना एक अलग ही रोमांच मन में भर देता था। उसका घर आते ही साइकल खुद ब खुद धीमी हो जाती थी।  लगता था पैडल भी मेरे मन की तरह आगे सरकना ही नहीं  चाहते थे जब तक की उसका मुस्कुराता चेहरा न देख ले। 
     मैं अपनी एक सहेली के साथ जाया करती थी। पहले तो वो मेरे इस व्यवहार को समझ ही नहीं पाई लेकिन धीरे -धीरे स्वतः ही वो मेरी साइकल की मजबूरी समझ कर मेरी राजदार बन गई। वो कुछ दूरी तक हमारे रास्ते पर ही जाया करता था लेकि हमारे साथ नहीं ,फिर उसका रास्ता बदल जाता था। मुझे आज भी याद है उसके घर में एक बड़ी सी झाड़ीनुमा आकार में गुलाब के पौधे लगे हुए थे शायद कई सारे गुलाब के पौधों को एकसाथ लगाने से उन्होंने ऐसा आकार ले लिया था। उन झाड़ीनुमा पौधों पर बहुत सारे सुर्ख गुलाब खिला करते थे। वो दृश्य इतना मनमोहक होता था के मेरा मन उस पर रीझ रीझ जाता था,साथ ही उन फूलों के मालिक पर भी। यूँ ही सुबह के उस एक लम्हे को जीते जीते पढ़ाई का एक साल कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला। अब परीक्षा परिणाम और गर्मी की छुट्टियाँ दोनों के आने का समय था। परीक्षा परिणाम इस बार पक्का से थोड़ा ख़राब आने वाला था सो पापा की डाँट का डर था दूसरी तरफ गर्मी की इतनी लम्बी छुट्टियां किस तरह कटेंगी ये सोच सोच के मन घबराये जाता था। उन दिनों गर्मी की छुट्टियां भी पूरे दो महीने की हुआ करती थी। समय आने पर पापा की डाँट भी खाई और छुट्टियां कुछ नानी के घर कुछ बुआ के घर ,कुछ उसकी याद में बिताई। जब मन बहुत उचट जाता तो साइकल लेकर घूमने के बहाने कई बार उसके घर के चक्कर भी लगाए। कभी वो दिखाई देता और कभी उसके वो सुर्ख गुलाब।
    12वीं कक्षा का पहला दिन ,स्कूल जाने के लिए मैं कभी इतनी बैचेन नहीं हुई थी जितनी की तब। मैं इस तरह उत्साहित हो रही थी कि जैसे छोटे बच्चे  खिलोने को देख कर होते हैं। खैर किसी तरह फिर से पहली जुलाई ने हमारे जीवन में प्रवेश किआ ,जो की पिछले 12 साल से कर ही रही थी पर इस बार कुछ खास था,और मैंने अपनी साइकल के पैडल पर कदम रखे और फिर वही पुराना ,जाना पहचाना लम्हा हमारी जिंदगी में वापस हो आया।वो लम्हा जिसके इन्तजार ने मेरी मनपसंद गर्मी की छुट्टियों को भी मेरे लिए जेल बना डाला था।पिछले एक साल के उन एक-एक लम्हों ने हम दोनों के बीच कुछ बांध सा दिआ था,जिसे जुबाँ से बयां करना मेरे लिए मुमकिन नहीं। दिन -प्रतिदिन की उन मुलाकातों में अब हमारे बीच बातें भी होने लगी थी,जिनमे शब्द कहीं नहीं थे केवल भावों को समझने और उन्हें कहने का हमारा अपना अंदाज था था। जैसे दो-तीन दिन दिखाई न देने के बाद उसका दिखना और फिर खाँसकर मेरी प्रश्नवाचक निगाहों को जवाब देना की बीमार था। किसी दिन आने में लेट होने पर मेरा जम्हाई लेके बताना की नींद देर से खुली, और भी कई ऐसे इशारे थे जो वक्त की किताब में छपकर धुंधले से हो गए हैं।
    जब कभी मेरी सहेली मेरे साथ नहीं होती थी तब हम दोनों की साइकिल एक साथ चला करती थी,न आगे न पीछे जैसे हमने रफ़्तार को बाँध लिया हो,जैसे हमारे इस साथ को बनाये रखने के लिए हमारे पैडल ,साइकल के पहिये भी ख़ामोशी से हमारा साथ दे रहे हों। हम दोनों उन दस मिनटों के साथ में न एक-दूसरे की ओर देखते थे और , न ही बात करते थे। फिर भी युहीं साथ चलना अच्छा लगता था। तब से लेके आज तक जाने कितने ही लोग मेरी राहों के हमसफ़र बने ,कितने लोगों से रिश्ते बने ,कितने लोगों के साथ कितने ही सुन्दर रास्तो पर सफर किआ लेकिन उन दस मिनटों के जैसा सफर वापस मेरी जिंदगी में नहीं आया। रविवार का दिन ,जिसके आने  सभी बेसब्री से इन्तजार करते हैं मैं उसके जाने का इन्तजार करती थी। समय -समय पर होती छुटियाँ ,परीक्षाएं मेरी बैचनी और बढ़ा दिया करती थीं। पर उस नादाँ उम्र में भी अपने जज्बातों पर नियंत्रण की चाबी लगाना मुझे आता था। जनवरी की ठण्ड का यहाँ जिक्र करना बेकार का तकल्लुफ होगा। उसी जनवरी की एक घने कोहरे वाली सुबह ,धीरे-धीरे अपनी साइकल और उसकी घंटी से रास्ता बनाते हम स्कूल जा रहे थे,वो हमारे पीछे ही था। कोहरे की वजह से हमें साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था इसलिए साइकल की गति भी काफी धीमी थी लेकिन फिर भी मैं एक स्कूटर वाले अंकल से टकराकर गिर पड़ी। वो भाग कर मेरी मदद करने हेतु आया ,मैं तब तक उठ चुकी थी मेरी साइकल उठा कर,उसे मुझे सम्हलाते हुए थोड़े चिंतित स्वर में बोला 'थोड़ा संभल कर 'और चला गया। उसकी वो आवाज ,वो शब्द कितने ही दिनों तक मेरे कानों में गूंजते रहे। जब भी मुझे उसके घर के अंदर लगे गुलाबों के दर्शन होते ,मैं बड़ी ही ललचाई नजरों से उन्हें देखा करती और सोचती कि काश उनमे से कोई एक गुलाब कभी मेरे हाथों में भी हो।
     इन दो सालों में पढाई के प्रति मेरा रुझान थोड़ा कम हो गया था लेकिन फिर भी परीक्षा के दिनों में मेहनत कर के मैं इतना तो कर ही लेती थी की मेरा दसवीं तक का रिकॉर्ड ज्यादा ख़राब न हो किन्तु मम्मी - पापा की उम्मीदों पर मैं जरूर पानी फेर चुकी थी। परीक्षाओं का मौसम आ चुका था और सब जीतोड़ मेहनत में लगे हुए थे ,मैं भी।  मेरी सहेली उस वक्त कहीं से जानकारी लेकर आई थी कि वो 12 वि कक्षा में पढता है और काफी होशियार है। वो दसवीं में मेरिट में आया था और अब भी उसका यही लक्ष्य है। वो ये जानकारी कहाँ से लाइ थी उसने नहीं बताया। पहले परीक्षा की तैयारी के लिए छुट्टी और फिर परीक्षाएं सो हमारा मिलना काफी कम हो गया था। हाँ जब परीक्षाएं ख़त्म होने को थी तब जरूर एक बार उस मोहक मुस्कान के दीदार हुए थे। उसकी नजरों की चमक से लग रहा था की उसकी परीक्षा अच्छी हुई थी, खुश था वो बहुत। उस दिन उसकी आँखें कह रही थी की शायद वो बात करना चाहता है लेकिन लाज और भय ने हमें उस तक जाने ही नहीं दिया। उसके बाद वही लम्बी छुट्टियां और फिर परिणाम का दिन। परीक्षा ख़त्म होने से लेकर इस दिन तक कितनी ही बार मैंने ईश्वर से उसकी मेरिट की मनौती मांगी थी। कितनी बार बस युहीं उसे देखने गई थी। कितनी ही बार सोचा की उसको खत लिखूं ,लेकिन क्या लिखूं ये नहीं समझ पाई। कितनी ही बार मन किआ की उससे बाते करूँ ,उसकी आवाज सुनु लेकिन मन बस सोचता ही रहा कर कुछ नहीं पाया। परिणाम वाले दिन मैंने पूरी मेरिट लिस्ट पढ़ी एक बार,दो बार ,तीन बार ,बार -बार पर उसका नाम कही नहीं था। होता भी कैसे मुझे उसका नाम पता ही कहाँ था ?मम्मी बार -बार मुझसे मेरा परिणाम पूछे जा रही थी ,मैं अपनी नाक बचाते हुए पहली श्रेणी में पास हो चुकी थी ,अंक बाद में पता चलने थे। लेकिन अब उनकी कोई चिंता नहीं थी ,फ़िक्र  दूसरी थी ,उसका नाम........
    मैंने झटपट साइकल उठाई और सहेली का नाम लेकर उसके घर की और चल दी। वहां पहुँच कर देखा सामान्य से अलग माहौल है। कई लोगो की आवाजें आ रही थी, बोल क्या रहे थे समझ नहीं आ रहा था। मैंने खुद ही सोच लिया था की मेरिट में आने की बधाई देने आये होंगे। आज तो मैं भी बधाई देकर ही जाउंगी मन ही मन ये सोचकर ,उसके इन्तजार में थोड़ी दूर खड़ी हो गई। कुछ देर इन्तजार के बाद उसके घर का दरवाजा खुला और कुछ लोग बाहर आये। उनकी अवस्था देखकर लगा नहीं की वो खुश थे। वो सब बाहर आकर खड़े हो गए और आपस में कुछ बातें करने लगे। उनकी बातें साफ़ -साफ़ सुनाई नहीं दे रही थी सो मैं थोड़ा पास जाकर खड़ी हो गई फिर भी कुछ सुनाई नहीं दिया। अगले 10 मिनट बाद जो दृश्य मेरी आखों के समक्ष था वो मेरी किसी भी कल्पना से परे था। चार लोगों ने एक कफ़न ढकी लाश को अपने कन्धों पर उठा रखा था और उनके बाहर निकलते ही स्त्री -पुरुष सबका मिश्रित रुदन मेरे कानों में पड़ा। जून की गर्मी में मैं बर्फ सी ठण्ड़ी हो चुकी थी।मेरी नजरे हर तरफ उसे ही ढूँढ रही थी लेकिन वो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। मुझसे रहा नहीं गया ,में बिलकुल उन लोगों के पास जाकर खड़ी गई और तब जो मैंने सुना उस पर विश्वास करने में मुझे सालों लग गए। 'उसका नाम' वाकई मेरिट  लिस्ट में नहीं था और इसी गम में उसने खुद को फांसी लगा कर अपनी जान दे दी थी।
  मेरी नजरे उसकी लाश पर जा टिकीं। उसे उन्हीं सुर्ख गुलाबों सजाया गया था जिन पर कभी मेरा दिल रीझ -रीझ जाया करता था.आज वही गुलाब मुझे जहर से बुझे लग रहे थे। कफ़न ने उसके चेहरे को ढांप रखा था। मैं बस आखरी बार उसे देखना चाहती थी ,मैं देखती रही ,देखती रही की बस वो फिर से उसी तरह मुस्कुरा दे। उसने नहीं सुनी मेरे दिल की , वो नहीं उठा मेरे लिए ,वो चला गया ,हमेशा के लिए चला गया। चलते - चलते अपनी लाश से वो एक गुलाब गिरा गया। मैं आखिरी बार उसका चेहरा न देख पाई लेकिन ऐसा लगा की ये गुलाब वो मेरे लिए ही छोड़ के गया है। अभी-अभी जिस गुलाब से मुझे नफरत हुई थी वो फिर मोहब्बत में बदल गई। सबके जाने के बाद मैंने उसे उठा लिया और ले आई अपने साथ अपनी पहली मोहब्बत को जिन्दा रखने के लिए। उस गुलाब को लेकर कितनी ही देर तक मैं उसी राह पर सुन्न खड़ी रही , कई बार उसका मुस्कुराता चेहरा उसमे देख कर मुस्कुराई और कितनी ही देर तक मैं रोई। सब मुझे आज भी याद है। वो और उसका गुलाब आज भी मेरे साथ है। उस गुलाब को मैंने रख दिया अपनी डायरी में और उसे अपने दिल की गहराइयों में। आज भी ईश्वर से यही गिला है की इतनी बड़ी कीमत देकर वो गुलाब मैंने कब चाहा था ?

Thursday 1 June 2017

बदलाव

 सुचित्रा  आज फिर ओफ़िस से घर के लिये निकलते-निकलते लेट हो गई सारे रस्ते उसके दिमाग मे आकाश का चेहरा घूमता  रहा ओर कानो मे उसकी जली कटी बाते.   कहाँ थी,किसके साथ थी,ये कोई घर आने का टाइम है। सुचित्रा का आकाश के साथ रहना मुश्किल होता जा रहा था,लेकिन उनकी ५ साल की बॆटी उन्हे एक साथ बान्धे हुए थी उसका चेहरा देखते ही वो अपना सारा अपमान भूल जाती थी. घर पहुँचने पर आकाश ने ही दरवाजा खोला सुचित्रा अन्दर आकर कुर्सी पर बैठ गई । नेहा मम्मी मम्मी चिल्लते हुए उसके गले से लटक गई तो पास ही खडे आकाश ने बोला,बॆटा मम्मी थक कर आई है उन्हे थोडा आराम करने दो.सुचित्रा आकाश आश्चर्य से देखती रह गइ। ना आज उसकि जली कटी सुनने को मिलि ना ही ताने......आज तो खाना भी आकाश ने ही परोसा। आकाश मे ये बदलाव रोज ही नजर आने लगा.सुचित्रा आकाश मे आये इस बद्लाव को देखकर खुश होना चहती थी लेकिन उसके मन की दुविधा उसे सोचने पर मजबूर कर रही थी।रविवार का दिन था,नेहा खेलने गइ थी आकाश ओर सुचित्रा बैठ कर टीवी देख रहे थे। आकाश ने बडे प्यार से उसका हाथ थामते हुए पूछा ,सुचित्रा मै तुमसे कुछ मागू तो तुम मना तो नही करोगी। सुचित्रा का मन सचेत हो गया। उसने कहा ......क्या बात हॆ बोलो। आकाश ने कहा ....तुम्हे तो पता हि है,मुझे नोकरी करने मे बिल्कुल भी दिलचस्पी नही है। मै ओर दिलिप एक नया बिजनस शुरु करने कि सोच रहे है। ६ लाख रुपये चहिये,तुम अपनि कम्पनी से लोन ले लो।सुचित्रा को आकाश मे आये बदलाव का कारन समझ आ गया था.

Saturday 20 May 2017

Mera Jahan:                                       शब्द  वो जब ...

Mera Jahan:                                       शब्द  वो जब ...:                                       शब्द   वो जब भी मेरे पास आता था शब्दों की कमी उसे बड़ी अखरती थी। शब्द होते ही कहाँ थे उसके पास मुझस...

Tuesday 16 May 2017

                                      शब्द  
वो जब भी मेरे पास आता था शब्दों की कमी उसे बड़ी अखरती थी। शब्द होते ही कहाँ थे उसके पास मुझसे रूबरू होने के लिए। यूं बाहर बैठ कर सबसे वो पूरे गद्यांश  बोल लेता था लेकिन मुझे अकेला पाकर शब्द  मुंह में जम से जाते थे। सिर्फ बोलने में ही नहीं मेरी जुबान से निकले शब्द सुनने में भी उसको आपत्ति थी। वो कहता था की मेरे मुँह से निकलने वाला हर शब्द फिजूल है ,बेमानी है फिर चाहे उसके व्यवहार से ,परिवार से ,रिश्तेदारों से,माँ से या मेरी जरूरतों से सम्बंधित हो ,सब मेरे दिमाग का वहम है जिसे मैं शब्दों का रूप देती रहती हूँ। बेकार की किताबें पढ़ती हूँ ,बेकार के सिरिअल्स  देखती हूँ और इन सब को पढ़ सुनकर जो फिजूल की बातें दिमाग में आती हैं उन्हें वाक्यों के रूप में उसके सामने रख कर उसका कीमती समय बर्बाद करती हूँ।    जिसे की वो समाचार सुनने में ,ज्ञानवर्धक किताबे पढ़ने में  या अपने घरवालों से बात करने में व्यतीत करना चाहता है। 
 मेरे साथ होते किसी भी व्यवहार में 'वो,उसकी माँ ,उसके घरवाले' हमेशा सही होते थे गलत होते थे तो बस मेरे मुँह निकले हुए वो शब्द जो की मेरे दिल के, मेरे आत्मसम्मान के टूटने पर मेरी पीड़ा को बयान करते थे।  वो  मेरे साथ मेरे कमरे में रहता था ,मेरे साथ सोता था ,कभी -कभी मेरे साथ घूमने भी जाता था ,मुझ पर अपना  पैसा भी खर्च करता था लेकिन शब्द नहीं खर्चता था। अनमोल थे उसके शब्द ,यूँ ही 'किसी ' पर  जाया नहीं करता था। बहुत खुशनसीब लोग थे वो जिन्हे उसके सुनना नसीब होता था सिवाय मेरे। पिछले दो सालो में सिर्फ हूँ ,ना ,ठीक है ,हाँ ,हो जायेगा ,देख लो आदि शब्दों का परिचय करवाया है उसने मुझे। शब्दों को जज्बातों के धागे में  पिरो कर वाक्य बनाना वो मेरे सामने भूल ही जाता था। हाँ जब  अपनी माँ के साथ होता था तब उसकी वाक्य बनाने की कला इतनी मुखर हो उठती थी कि २-3 घंटे तो यूँ ही गुजर जाते थे। जब किसी दोस्त से फोन पर शब्द रचना कर  रहा होता था तो इतना सहज होता था कि लगता ही नहीं था की ये वही इंसान है जिसे अपनी ही पत्नी के सामने शब्दों का अकाल पड़ जाता है। दो सालो तक मैंने उसके शब्दों की कमी को अपनी व्याकरण से पूरी करने की भरपूर कोशिश की लेकिन मेरी व्याकरण का लगभग हर शब्द उसे नापसंद था। शायद उसे सच्चे शब्द अच्छे नहीं लगते थे क्युकी कभी कभी वो उसकी माँ और उसके व्यवहार के बारे में होते थे। मेरे प्रति उसकी उदासीनता के बारे में होते थे। माँ ,माँ होती है ये मैं अच्छी तरह जानती हूँ लेकिन उसके सामने की माँ मेरे सामने आते ही सास में बदल जाती थी और फिर उसके शब्दबाण मेरे दिल को मेरे स्वाभिमान को निशाना बनाकर उन्हें चोट पहुंचते रहते थे। जब इन घावों को मैं उसे दिखती तो ना उसके प्यार का ना ही उसके शब्दों का मरहम मुझे  मिलता था। मिलता था तो बस एक और घाव ,मेरी असमर्थता ,मेरी अनुपयोगिता का। 
लेकिन मैं अपना फर्ज पूरा करती रही ,इसी क्रम में मैंने उसे पिता बनने  खुशखबरी भी दी। तब से लेकर पूरे नौ महीने तक मैं इन्तजार करती रही उसका ,उसके प्रेम का ,उसके शब्दों का ,उसके साथ का किन्तु वो इन्तजार पूरा कभी नहीं हुआ। अब तो मेरे शब्द भी मेरे अंतर्मन में जमने  लगे। उन्हें बाहर आकर अपमान सहना अच्छा नहीं लगता था। वो अपना सब काम छोड़ कर अपनी माँ के कमर दर्द के लिए डॉक्टरों के पास भागा फिरता था लेकिन मुझे डॉक्टर के पास ले जाने की उसे फुर्सत नहीं थी। मेरी दर्द भरी आह को भी वो अनसुना कर जाता था। धीरे -धीरे मुझे ये यकीन हो चला था की मेरा वजूद उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। मेरे शब्दों का पहाड़ शैनेः -शैनेः मेरी अंतरात्मा पर जमने लगा। पहले छोटा ,फिर बड़ा ,और फिर इतना बड़ा की उसका बोझ मेरे लिए असहनीय हो चला था ,मेरा सर इस बोझ से फटने लगा। इस वक्त भी अगर उसके शब्दों का सहारा मुझे मिल जाता तो मेरे  मन का ये बोझ हट जाता। लेकिन मेरी तकलीफ ,उसके पिता बनने की ख़ुशी भी उसके मोन को ना तोड़ सकी। धीरे -धीरे ये बोझ इतना बढ़ गया की मैं अपना और अपने अंदर पल रही नन्ही सी जान का बोझ सहने लायक नहीं रही। 
 मैं स्ट्रेचर पर लेटी ऑपरेशन थिएटर की और बढ़ रही थी और वो अपने शब्दों को वाक्यों में पिरोने की कोशिश कर रहा था। लेकिन उसने अपने शब्दों को मुझ तक पहुँचाने में बड़ी देर कर दी। मैं अब नहीं बचूंगी ये मैं जान चुकी थी बस ईश्वर से इतनी प्रार्थना जरूर कर रही थी की अगर मेरा बच्चा इस दुनिया में जन्म ले पाए तो उसे अपने पिता के शब्दों की कमी का सामना न करना पड़े। काश मैं उसे समझा पाती की शब्दों के धागे उस पुल  की तरह होते हैं जो दो अजनबी इंसानो को पास  लाते हैं और उनमे अगर प्रेम ,विश्वास और अपनापन गूंथ दिया जाये तो उन्हें हमेशा जोड़े भी रखते हैं। शब्द किसी एक रिश्ते की नहीं हर रिश्ते की जरूरत होती है। अगर हमारे रिश्ते में भी शब्दों का भावनाओं का संसार होता तो शायद मैं भी जी पाती।