Friday 7 September 2018

तुम अब बड़े हो गए हो

तुम अब बड़े हो गए हो 
मेरी गोद से उतरकर उंगली पकड़कर चलते चलते
 जाने कहाँ गुम हो गए हो 
तुम अब बड़े हो गए हो 
जब भूख लगती थी तो मेरी याद आती थी
कोई चीज गुम हो जाती थी तो मेरी याद आती थी
मेरे आँचल को छोड़ जाने किस ओर मुड़ गए हो
तुम अब बड़े हो गए हो
जब चोट लगती थी तो मुझे बुलाते थे 
डर लगता था तो मेरी ओट में छुप जाते थे
अपने जख्मों पर मरहम लगाते लगाते 
अपने डर को छुपाना सीख गए हो 
 तुम अब बड़े हो गए हो 
बदमाशी करते थे तो डांट खाते थे 
कभी खुद रूठते थे कभी मुझे मनाते थे 
हमारी ही उम्मीदों का बांध बांधते जाने कहाँ बह गए हो 
तुम अब बड़े हो गए हो 
मेरे पास बैठकर घंटों बातें बनाते थे 
कुछ भूल गए तो पीछे फिर फिर के आते थे 
लेकिन अब हर बात को संक्षिप्त रूप से कहना सीख गए हो 
तुम अब बड़े हो गए हो 
मेरी हर हिदायत पर ध्यान देते थे 
अपने नरम हाथों से मेरे आंसू पोंछ देते थे 
 मेरी जली हुई ऊँगली पर फूंक मारते मारते 
जाने कब टेक केयर कहना सीख गए हो 
तुम अब बड़े हो गए हो 
तुम अब बड़े हो गए हो 

 
 

Friday 16 February 2018

                                     नारी देह 
मैं एक नारी हूँ सृष्टि की सबसे खूबसूरत  आकर्षक रचना जिसे ईश्वर ने स्नेह,विश्वास,सेवा,त्याग ,परिश्रम और ममत्व के हीरो से जड़ा है.मेरा एक-एक गुण अपनी अलग विशेषता रखता है. मैं बेटी,बहन,मां. बहू,दोस्त,पत्नी सभी किरदारों को एक साथ स्वयं में समेटे अपना पूरा जीवन अपने परिवार को समर्पित करती हूं. ऐसा नहीं है कि पुरुष के व्यक्तित्व में विभिन्न चरित्र नहीं होते। वह भी अपने जीवन में बेटे पति,दोस्त,पिता,भाई,दामाद आदि का किरदार निभाता है लेकिन मेरी तरह वह इन्हें अपने व्यक्तित्व में घोट नहीं लेता अपितु वो एक बार में केवल एक ही किरदार निभा पाता है। इसके अलावा मेरे दो खास गुण जिन्हें पुरुष चाह कर भी नहीं अपना सकता वह है बहू और मां का रूप. एक नारी में ही वो शक्ति है कि अपनी जन्म स्थली को छोड़कर एक पराए और अनजान परिवार को अपना बनाती है और अपनी सारी जिंदगी उस परिवार की सेवा करती है,उसका ख्याल रखती है. यहां तक की इस सब में वो अपने माता-पिता व स्वयं को भी भुला देती है, केवल पुरुष द्वारा उसकी मांग में भरे गए एक चुटकी सिंदूर के कारण। लेकिन इतने पर भी इसमें अच्छाई नारी की नहीं है बल्कि पुरुष का अहम सिद्ध है, कि मैंने तुम्हें अपनाया और इसलिए तुम पतिता होने से बची,यह मेरा एहसान है तुम पर और जिंदगी भर रहेगा कि तुम्हारी सूनी मांग मेरे हाथों सजी है। मेरे इस एहसान का बदला तुम्हें चुकाना होगा सारी जिंदगी स्वयं को भूल कर मेरी और मेरे परिवार की सेवा करके और मैं करती हूं यह सब उसका एहसान चुकाने के लिए नहीं अपितु अपने नारी होने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए,उस ईश्वर की अनमोल सृष्टि को बचाए रखने के लिए। मेरा दूसरा गुण है मां बनना, हां सहयोगी हमेशा पुरुष होता है लेकिन नौ माह अपने शरीर में उसके अंश को रखना, अपने खून से सींचना,असहनीय कष्ट प्राप्त कर उसकी संतान को जन्म देना, मेरा ही कार्य है। मां के रूप में एक नारी को ईश्वर की परछाई कहा गया है कहते हैं कि इस धरती पर ईश्वर स्वयं नहीं पहुंच सकते थे इसलिए उन्होंने मां बनाई और उसे हर घर में भेज दिया अपनी परछाई बनाकर। लेकिन क्या पुरुष ईश्वर की इस अनमोल कृति 'नारी' का सम्मान कर पाया,उसका ख्याल रख पाया?
 आज नारी सिर्फ एक देह है जिसका भोग करना ही पुरुष का एकमात्र लक्ष्य है। स्कूल-कॉलेज मंदिर-देवालय घर बाहर सब जगह उसकी नजरें नारी कि केवल देह टटोलती है।बच्ची,जवान,किशोर, अधेड़,किसी से पुरुष का आज कोई रिश्ता नहीं है,उसे चाहिए तो बस देह। हर जगह मेरे गुणों से पहले पहुंचती है मेरी देह की चर्चा,मेरे कार्य से पहले लिया जाता है मेरी देह का जायजा। पूरे कपड़े हो आधे, सादे हो या शहरी, ढीले हो या चुस्त किसे फर्क पड़ता है मनचलों की अश्लील नजरें तो एक्स-रे की तरह मेरी देह को टटोलती रहती है। उन्हें क्या फर्क पड़ता है मेरी असहजता से, मेरे गुस्से से, मेरी बेबसी से। मैं खूबसूरत हूं तो दोष मेरा है, किसी मजबूरी वश अकेले रात में बाहर हूं तो दोष मेरा है, मेरे साथ कुछ गलत होता है तो भी दोष मेरा है, क्योंकि मैं तो एक नारी की देह हूँ मुझे तो बस ढके-दबे हालातों में घर पर ही रहना है। मनचलों की अश्लील नजरें मेरी देह को तलाशती हैं तो भी दोषी मैं हूं, मुझे यूंही छूकर गुजरते हाथों के नजदीक जाने की गलती भी मेरी है, मेरे साथ दुष्कर्म करने वाले राक्षसों का शिकार बनने में भी मेरा ही दोष है। मेरे खिलाफ फतवा जारी किया जाता है, घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगाया जाता है, अपनी जिंदगी जीने की सजा दी जाती है, किंतु कोई उस दोषी पुरुष पर क्यों नहीं प्रतिबंध लगाता क्यों नहीं उसके विरुद्ध फतवा जारी करता? क्यों उसके अपराध को मर्दानगी कहा जाता है, क्यों मेरी देह को पैरों तले रोंद कर आगे बढ़ जाने वाला सजा नहीं पाता?
  फूलों कि हर बगिया के अंदर लिखा होता है कि फूल-पत्ती तोड़ना मना है फिर क्यों उस सबसे बड़े माली की बगिया के सबसे सुंदर फूल को कोई भी मनचला बेरोक-टोक तोड़कर उसकी खुशबू सूंघकर उसकी पत्तियां तोड़कर और बेदर्दी से अपने कदमों तले रोंद कर बेखौफ चला जाता है ? क्या उसके लिए कोई नियम, कोई पाबंदी है या फिर सिर्फ मेरी देह ही नियमो में बंधने को बनी है।क्या दे सकता है कोई उन्हें सजा जिनके लिए सिर्फ कुछ महीनो की बच्ची भी केवल नारी देह है ? मेरे बहार निकलने पर प्रतिबन्ध और इस जानवर को खुल्ला घूमने की ,अपनी दरिंदगी फैलाने की आजादी ? क्या यही है हमारा सभ्य ,सुसंस्कृत, समाज ? क्या कभी नारी को भी देह से परे एक इंसान समझा जायेगा,क्या कभी उसकी अस्मिता की भी रक्षा की जाएगी या फिर यूँ ही उसे बस भोग की वस्तु समझकर उसे बर्बाद किआ जाता रहेगा ?